ब्लैक अमरीकी ब्लॉगर एरी बाइन्स काफ़ी
मुँहफट हैं और अपने बेबाक लेखन की वजह से जानी जाती हैं. बेब.नेट नाम की
वेबसाइट पर वो लिखती हैं: मुझे अफ़्रीक़ी-अमरीकी कहना बंद करो- मैं ब्लैक
हूँ.
मैं उनके लेख में भारतीय वर्ण व्यवस्था के सबसे निचली पायदान
पर खड़ी दबी-कुचली औरत की ध्वनि सुनता हूँ, जो ऊपर की मंज़िल पर रहने वाले
कुलीनों से चीख़ कर कह रही है: "मुझे हरिजन और शेड्यूल कास्ट कहना बंद करो.
मैं दलित हूँ."बाइन्स ऐसे ही कुलीनों से तंज़िया अंदाज़ में कहती हैं: "सुनो, दोस्तों और सहेलियों...लोग जैसे चाहेंगे वैसे अपनी पहचान तय करेंगे. मैं ख़ुद की पहचान ब्लैक के तौर पर करती हूँ और तुम्हारे लिए यही काफ़ी होना चाहिए."
अगर भारत के दलित ख़ुद को दलित कहलवाने में गर्व महसूस करते हैं तो भारत के 'जातीय कुलीनों' के लिए भी इतना काफ़ी होना चाहिए. अगर दलित ख़ुद को दलित कह रहा है तो कोई क़ानून, कोई सरकारी हुक्मनामा, किसी विजिलांती की कोई धमकी काम नहीं करेगी.
कभी भीमा कोरेगाँव में, कभी खैरलांजी में तो कभी मिर्चपुर का दलित ज़ोर से चिं
और जब जब जाति व्यवस्था के भारी पहिए के नीचे कुचला जा रहा व्यक्ति कहेगा कि उसे कुचला जा रहा है और यही उसकी पहचान है, तब-तब उसकी पहचान को नया नाम देने की कोशिश होगी. क्योंकि ये एक शब्द है जो सदियों से दलितों के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचार और भेदभाव को उसकी पूरी विद्रूपता के साथ एक झटके में नंगा कर देता है.
घाड़ कर कहेगा - मैं दलित हूँ.
सत्य का ऐसा नग्न स्वरूप महात्मा गाँधी को भी पसंद नहीं था. इसीलिए उन्होंने दलित जातियों के लिए 'हरिजन' जैसा शब्द दिया जिसमें ब्राह्मणवादी अत्याचार और विद्रूप को आध्यात्म के रेशमी गिलाफ़ में ढका जा सके. डॉक्टर आंबेडकर इस शब्द को लेकर महात्मा गाँधी से पूरी तरह असहमत थे. हरिजन शब्द के विरोध में उन्होंने बंबई विधानसभा से वॉकआउट भी किया था.
इसके बावजूद दलित समाज की इच्छा के ख़िलाफ़ उसे हाल-हाल तक हरिजन के तौर पर चिन्हित किया जाता रहा है. हरिजन शब्द दलितों के साथ सैकड़ों सालों से चले आ रहे भेदभाव, छुआछूत, हत्या, बलात्कार और आगज़नी को शालीनता के रेशमी गिलाफ़ में ढाँप देता है, जबकि दलित शब्द इस भेदभाव, क्रूरता और अन्याय की सामाजिकता और राजनीति को हठात् उजागर कर देता है.
दलित शब्द संस्कृत के दलन से निकला है. बीज को पत्थर की चक्की के दो पाटों के बीच दलकर दाल बनाई जाती है. वर्णाश्रम व्यवस्था में कथित 'श्रेष्ठ जातियों' के पैरों तले कुचले जाने वाली जातियों को पहले 'पद दलित' और बाद में दलित कहा गया.
जब-जब किसी को दलित कहा जाएगा तो दलन करने वाले की पहचान ज़रूर पूछी जाएगी. इसी से बचने के लिए कहा जाता है कि दलित जैसे शब्द की बजाए अनुसूचित जाति जैसा शब्द इस्तेमाल किया जाए जिसे पढ़-सुनकर कोई तस्वीर ही न बन पाए.
दलित शब्द सुनते ही आपके ज़ेहन में उन चार नौजवानों की तस्वीर उभर आएगी जिन्हें गुजरात के ऊना क़स्बे के पास ऊँची जाति के कथित गौरक्षकों ने मरी गाय का चमड़ा खींचने के जुर्म में एक गाड़ी से बाँधकर चौराहे पर सरेआम डंडों से पीटा था.
वीडियो में इन नौजवानों का दलन होते हुए दिखता है - इसलिए उनकी असली सामाजिक और राजनीतिक पहचान दलित की है, अनुसूचित जाति या शेड्यूल कास्ट की नहीं जैसा कि केंद्र सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय और सामाजिक कल्याण मंत्रालय हमें बता रहा है.
मशहूर ब्रितानी पत्रकार और युद्ध संवाददाता रॉबर्ट फ़िस्क कहते हैं "सत्ताधीशों और मीडिया के बीच कोई झगड़ा नहीं है. भाषा की मदद से हम भी वही बन चुके हैं."
फ़िस्क ख़बरदार करते हैं कि सत्ताधीशों और पत्रकारों की भाषा लगभग एक-सी होती जा रही है. सरकारें और हुक्मरान चाहते हैं कि हम उन्हीं शब्दों का इस्तेमाल करें जिन्हें सरकारें इस्तेमाल करवाना चाहती हैं. जैसे इराक़ पर हमले के दौरान पश्चिमी मीडिया में 'कोलैटरल डैमेज' जैसे जुमलों का इस्तेमाल होता था.
ये शब्द मीडिया में अमरीकी हुकूमत के ज़रिए लाया गया ताकि फ़ौजी हमलों में आम नागरिकों की मौत की हक़ीक़त को ढाँपा जा सके.
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